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प्यार: एक शब्द जिसकी थोड़ी सी दस्तक जिंदगी को उन अनेक रगों से भर देती है जिसकी चमक आँखों को इन्दधनुष में भी देखने को नहीं मिलती. इस छोटे से शब्द में सागर से ज्यादा विशालता एव गहराई छिपी हुई है.आज के संदर्भ प्यार का ये अर्थ कल्पना मात रह गया है . जहा तक सैधांतिक दृष्टी की बात है तो इसके अर्थ में कोई परिवर्तन नही आया सिधांत कभी नहीं बदलते बल्कि वो सब्द आपनी वास्तविकता बदल लेता है. वेसे भी सिधांत हमेशा से ही वास्तविकता से कोसो दूर रहे है. इसी प्रकार परिवर्तनशील इस समाज में प्यार का हाल ये हुआ के वह अपनी मार्मिक छवि को छोड़ता हुवा वासनात्मक से जुड़ गया . तभी हिंदी की कवयत्री ममता कालिया लिखती है ” प्यार शब्द घिसते घिसते चोकोर हो गया है. अब हमारी समज में सिर्फ सहवास आता है”. हमारे समाज की संस्कृति में ही स्नेहवादी प्यार की प्रधानता रही है. उसने पश्चिमी सभ्यता की और कुछ ऐसी करवटे बदली की न तो वह पुर्ण रूप से उसके रंग से रंग पाया और न अपने अन्दर सिमटकर रह पाया. इस दोहरी स्थिति में हमारा समाज पश्चिम की तड़क भड़क का दीवाना भर रह गया. इसके परिणामस्वरुप न तो हमारे अन्दर इतना खुलापन आया की हम वासनात्मक प्यार को स्वीकार कर ले और न ही इतनी आत्मशक्ति की इस प्यार को अस्वीकार कर पाए .
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