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ज़ख़्म : जो कभी भरते नहीं

सबकुछ-प्यार से
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शहर का एक हँसता खेलता हुआ एक छोटा सा परिवार , हर चीज छोटी छोटी , छोटा सा मकान , छोटा सी कमाई, थोड़े से रिश्तेदार , छोटी छोटी आवश्यकताए . खुशिया भी अक्सर छोटी छोटी बातो में ढूंढ़ते रहते . परिवार जैसे सरकार से मान्यता प्राप्त हो , हम दो हमारे दो और एक बुजुर्ग बाप . परिवार की फोटो भी ऐसे लगती थी जैसे ई एस आई डिपार्टमेंट के लिए खीचवाया हो “चिंता से मुक्ति” . सब कुछ छोटा छोटा था पर सरल और सुलझा हुआ . सोच में भी ज्यादा की उमीद नहीं करते थे इसलिए ज्यादा दिक्कते भी नहीं थी .

समय भी हमेशा सीधी चाल नहीं चलना चाहता , अक्सर ऊपर-निचे जाना उसकी नियति होती है . परिवार भी आगे बढने लगा , बच्चो की क्लासे बड़ी हो गयी , बूढ़ा बाप की बीमारिया भी बड़ी होने लगी , फिर भी सब चल रहा है खुशी-खुशी . हर उम्र का एक पैमाना होता है , घर की बागडोर अब लड़के के हाथ में आ गयी थी , वो भी अब व्यस्त रहने लगा , उसकी बीबी बच्चो और बुजुर्ग की देखबाल में ही समय बिताती थी . घर में बुजुर्ग , जिन्होंने तमाम उम्र परिस्थितियो से लड़ते लड़ते बितायी थी अब कमजोर होने लगे.

जब शरीर कमजोर पड़ने लगता है तो सोच भी सिमट जाती है. हर कोई कमजोर दिखने लगता है परिस्थितिया भयानक लगने लगती है . इसी को शायद बुढ़ापा नाम की बीमारी कहते है . हर समय एक डर सा लगा रहता है , मेरे साथ ये न हो जाये, वो न हो जाये . उससे भी ज्यादा चिंता ये की मेरे अपने मेरे लिए परेशान न हो जाये. लड़के की प्राइवेट नोकरी , बच्चो का खर्चा , बाप की बीमारी का खर्चा , बुजुर्ग को बहुत चुभता था. जिस शख़्स ने तमाम उम्र सबको खुशिया बाटी हो, उसके बदले कभी कुछ नहीं लिया . आज वो शख़्स किसी के ऊपर केसे बोझ बन सकता है , ये ही उधेड़ बुन सारा दिन बुजुर्ग के दिमाग में चलती रहेती . हल तो कोई था नहीं बस हर बात से नफरत सी हो गयी, अपने आप से भी . समय तो समय है किसी के साथ भी वाफायी नहीं करता . कमजोर शरीर और कमजोर दिमाग में हर वक़्त उथल-पुथल मची रहेती . इसी बीच एक फ़ैसला बुजर्ग ने लिया, घर छोड़ने का फ़ैसला .

उनके दिमाग को शायद ये ही सही लगा हो , कही दूर चले जाओ अपनों से आगे , उनको छोड़ कर , अपना तो बोझ उनके कंधो से उतार दो. तारीख १४ अगस्त २००२ फ़ैसले पर अमल हुआ और वो घर छोड़ चले दिए . उनके बाद जो जो होना था वेसे ही हुआ , श्याम तक इंतजार , उसके बाद रिश्तेदरो से पूछताछ , महीने दो महीने जहाँ – जहाँ भी जाने की उमीद थी वहाँ-वहाँ उनकी खोज . नतीजा सिर्फ शून्य , परिवार एक सदमे में चला गया , जो रोज रोज सुनते थे में चला जाऊंगा , वो आज हो गया , उस वक़्त तो लगता था ये सब बुडापे की वजेहे से बोलते है . उमीद से परे की घटना घट चुकी थी . कभी कभी उनकी याद में आसू निकल जाते तो कभी कभी लगता हम इतने बुरे हे जो उन्होंने अपने कदम वापस नहीं बढाये . कमी कहा रह गयी ये सोच ही ही शेष रह गयी. . पूरा परिवार समाज में सुसंस्कृत माना जाता था , अत: समाज की तरफ से भी कोई बुराई नहीं आई , हर कोई दुःख तो परकट करता था, हां पीढ पीछे की कोई गारंटी नहीं होती.

समय का पहिया तेजी से घुमा , आठ दस साल पुरानी हो गयी थी ये घटना . आज छोटे छोटे बच्चे बड़े हो गए , दादा की एक हलकी सी याद भर उनके दिमाग में थी. हा में उस घर का लड़का आज भी कुछ नहीं समज पाया , बड़ी बड़ी पढाई की , आज अच्छी खासी नोकरी है . समाज में अच्छा खासा रुतबा है . मगर कुछ नहीं सुजता , आज भी वो घटना दिल पर सीधे प्रहार करती है . सुना था समय अच्छे अच्छे जख्म को भर देता है . हां अगर कोई इन्सान मृत्यु को प्राप्त होता है तो ये सब ईश्ववरीय इच्छा समझ कर मान लेते है . अगर कोई लड़ाई के बाद आपको छोड़ता है तो भी दुख कम हो जाता है. इस तरह नफरत का रोल भी अच्छा हो जाता है. पर यहाँ तो सब अलग और अजीब सा हो गया है , न कोई बेईमानी , न कोई लड़ाई , क्या कहेगे इसे , मेरी समझ से परे है . दिल और दिमाग जेसे जीरो हो गए हो .

सजा वो भी बिना किसी अपराध के , मिल रही है. आज भी उनकी चिंता सताती है , वो कहा होंगे , केसे होंगे , होंगे भी की नहीं , जीवन की अंतिम चरण में उनकी क्या दशा होंगी . बस सवाल पर सवाल है मेरी जिंदगी में जवाब कोई नहीं , जख्म तो है पर दवा कोई नहीं , ये ऐसे जख्म है जो समय भी नहीं भर सकता . जब तक मेरी जिंदगी चलेगी तब तक ये हमेसा हरे रहेगे . हां दिल से एक आग्रह हर शख़्स के लिए निकलता है , बुजुर्ग हो या जवान अपने हिसाब से फ़ैसला न ले. कृपया उसके नतीजे के बारे में भी सोचे , उसका किस- किस पर क्या-क्या असर पड़ेगा . भगवान ने ये जिंदगी बड़ी मुस्किल से दी है, उसे अपनी मर्जी से ख़तम न करे , साथ साथ रहे , किसी को भी भूल से भी कोई जख्म न दे. ये ही मेरे लिए शायद कुछ मरहम हो .

भूपेंद्र सिंह नेगी
साहिबाबाद , गाज़ियाबाद

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